मंगलवार, 29 मई 2018

मेरा बेटा अब बड़ा हो गया ....

           

कभी मेरी ऊँगली पकड़के चलता था,
आज गर्लफ्रेंड का हाथ थामके चलता है।

कभी मेरे साथ दूध पीने का कम्पटीशन करता था,
आज यारो के साथ बियर पीने का करता है।

कभी पापा-पापा करता था,
आज डूड की भाषा पढता है ।

कभी अँधेरे से डरता था,
आज नाईट आऊट ही करता है ।

कभी एक टॉफी के लिए पूरी रात पढता था,
आज सिगरेट पीत-पीते बढ़ता है ।

कभी दस बजे सो जाया करता था,
आज दस बजे तो उठता है ।

कभी पॉकेट-मनी के लिए सोर्स लगाया करता था,
आज थानो में सिफारिश भरता है ।

कभी मेरे काँधे पे बैठकर सैर किया करता था,
आज मोटरसाइकिल - कारो पे रेस लगाया करता है ।

कभी रोज सुबह पूजा किया करता था,
आज इसे काम फ़ालतू का समझता है ।

कभी बड़ो के पैर छूके नमस्ते किया करता था,
आज बस Hi-Hello ही करता है ।

कैसा ये दौर आया, कैसा ये समय हो गया ,
मेरा बेटा अब बड़ा हो गया
मेरा बेटा अब बड़ा हो गया ....


Note- एक पिता का दर्द पिता बनने के बाद ही पता चल सकता है।

गुरुवार, 30 मार्च 2017

मरता क्या ना करता ?

मैने अपने पिछले दोनों ब्लॉग में से सबसे पहले वाले में INDIA के 2nd developing phase की बात की थी।
यूँ तो इन बातों को अभी 4 साल भी नहीं हुये। पर आज का ये ब्लॉग मुझे ऐसा लगता है उसी ब्लॉग को आगे बढ़ा रहा है।आज के हालात देख कर ऐसा लग रहा है के 4 साल पहले के हालात और आज के हालातों में कोई ख़ास फर्क नहीं है।  मैं बात कर रहा हूँ किसान की ।



किसानों से जुडी समस्याएँ जिनसे पूरा देश वाकिफ है पर उनका सही समय पे सही तरीके से निवारण न होते हुए सबसे ज्यादा उपेक्षा का शिकार किसान ही है। यूँ तो हमारे देश में एक से बढ़कर एक बुद्धजीवी हैं, जो किसानों के लिए स्कीमे बनाने में पीछे नहीं रहते। और हमारे काबिल नेतागण इसे भुनाने में पीछे नहीं रहते।

पर इन सब में पीछे रहता है तो वो है किसान, जिसके लिए ये स्कीमे हैं उससे ही नहीं पूछा जाता के भाई तुम लोगो के लये ये स्कीमे बना रहे हैं इसमें कोई बदलाव या कोई और मांग चाहते हो।

वहीं दूसरी ओर किसान इन बातो से बेपरवाह दिन रात लगा रहता है तो बस खेत बोने-सींचने में। कड़ी मेहनत के बाद  पता है उसको क्या मिलता है ?  इन्तजार...केवल  इन्तजार। अपनी ही मेहनत के पैसे लेने के लिए उसे सालो इन्तजार करना होता है। पर यहाँ गौर करने वाली बात ये है के पैसा तो उसको साल से पहले मिलना नही है तो वो इतने खेती कैसे करे ? फसल कैसे लगाए ? तो यहाँ हमारी काबिल सरकारे लेके आती है कुछ स्कीमे, जैसे - kisan credit card, land development loan etc.. अब सबसे विचित्र बात देखिये कैसी विडम्बना है।  वो एक पुरानी कहावत हे ना - "मरता क्या ना करता ?"
तो ये कहावत यहाँ सच होती दिखती है। एक किसान जिसका पैसा परोक्ष-अपरोक्ष रूप से सरकार के नियंत्रण में है उसको ये सरकारे क़र्ज़ देती हैं और फिर कहती हैं के ये आप लोगो के लिए है बस निम्न ब्याज पर।
किसान की मजबूरी लेना ही होगा। कर्ज लिया। फिर सालो बाद उसका खेती का पैसा आया वो कर्ज चुकाया ब्याज के साथ। सरकार ने सालो उसका पैसा अपने पास रख उससे कमाया, फिर उसको जो क़र्ज़ दिया उससे कमाया। मतलब सीधा और साफ़ है समझ में आ जाए तो। सरकार को मतलब बस उसके खजाने भरने से है। 


पहले तो समय से किसान को उसका पैसा नहीं मिलता। फिर किसान का हितेषी बनने का नाटक करते हुए उसको क़र्ज़ दिया जाता है 7% पर जिसमे 4 % सब्सिडी बाद में आती है। इस पूरे छलचक्र में जो बड़ा किसान है वो तो झेल जाता है। पिसता है तो मझौला और गरीब किसान।

पहले तो शून्य = 0  बैलेंस पे खाते खुलवाये। फिर उनको आधार अपडेट करके सामान्य में बदल दिया जाता है।
और इन सबके बाद आखिरी चोट मारी जाती है खाते में min. बैलेंस की, withdrawl slip से कोई पैसा न देने की, जो पैसा दिया जाए वो एटीएम के द्वारा ब्रांच में ही स्वाइप करके दिया जाए।

सबसे पहली बात- क्या हर एक किसान (छोटा-गरीब ) 1000 रूपए अपने खाते में बचाये रख सकता है ?
और मुझे किसी सरकारी रिकॉर्ड की जरुरत नहीं, मैं भी एक किसान परिवार से हूँ, मुझे अपने क्षेत्र के गाँवो का हाल पता है जनाब। जहाँ तक़रीबन 60-70% लोगो के पास एटीएम ही नहीं है।

मैं ये नहीं कहता के इंडिया को digitalise मत करो।  समय की जरुरत है।  हमे होना होगा। पर जनाब किसानों की हालात बद से बदतर करके नहीं। किसानों की हालत बदलकर। 

सरकारे AC केबिन में बैठ कर स्कीम तो लॉन्च कर देतीं हैं, पर उनको ये पता होता नहीं है के क्या वाकई में उन स्कीमो से ground level पे बेनिफिट हुआ या नहीं।
जब उद्योगपतियों से feedback लिया जा सकता है उनके लिए लांच की गयी schemes का, तो किसानों से क्यों नहीं ?

और ये हाल तब है INDIA के किसान का जब यहाँ की 65% आबादी खेती पे निर्भर है। और दुःख की बात ये है के जिस देश को सबसे ज्यादा नेता किसान परिवारों ने दिए, उन किसानो की बात देश के हुक्मराणो के सामने कट्टरता से रखने वाला कोई नेतृत्व फ़िलहाल नज़र नहीं दिखता।



किसानों की समस्याओ-दुखो का पिटारा इतना बड़ा है के लिखने के लिए ये पेज  और पढ़ने के लिए आपका समय कम पड जाये। पर मेरे दोस्त हमे लिखना भी होगा, हमे सुनना-समझना भी होगा और समय की मांग को भांपते हुए  हमे कहना भी होगा.... के अगर देश का किसान ही सुखि नहीं है तो क्या मतलब बनता है बुलेट ट्रैन का और क्या मतलब बनता है digitalisation का जब किसान के खाते में पैसा ही नहीं हे लेन-देन को।

'बस एक छोटी सी तो बात है साहब समझने को, किसान चाहता है तो बस अपनी मेहनत का पैसा समय से'।






“The farmer is the only man in our economy who buys everything at retail, sells everything at wholesale, and pays the freight both ways.” – John F. Kennedy


बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

Kya vakai sarkar gareebo ki bhi utni hai jitni ameero ki ?

Dilli ki Tej-tarrar sadak pe bhagti- daudti gaadiyon ko uske upar bane bypass pe khade hoke niche se gujarti car, buso, chaaro taraf khade pathar k mehlo, gharo ko dekhna bada hi romaanchit karta hai. Ek ehsaas deta hai k hum vakai vikaas ki raah per hain, par vahin doosri aur sadak k footpath k upar se gujarte logo ki bheed me, zindagi k kayi padav dekh chuki ek bujurg mahila dikhai deti hai. Gehuan sa rang, jo dhoop se bachne k liye peepal k ped ki thodi si girti chhaav me bethi h, aur kuch bhutte liye hue hai, kuch chhiley-kuch bina chhiley. Vahin kuch koyle (कोयले ) se aag jala rakhi hai, jinme kuch bhutto ko bhoon kar, vo kuch rupiye-paise kama leti hai, bs apni roj ki jarurato ko pura karne k liye, Aur jarurate bhala kya-  2 waqt ki roti, jhopdi ka kiraya, tan dhakne ko kapde, pyaas bujhaane ko paani.

Ek aur tarakki karta seher najar aata hai, to doosri aur kuch log, jo bohot peeche reh gaye hain, jo apeksha ki bhet chadha diye gae hain. Inhi apekshakrat logo me se ek hai vo bujurg mahila.

Usey kuch nahi chahiye kisi se, naa usey kuch chahiye is sarkaar se, Kyunki usney to beetey 40 saalo se chaha, par kisi se kuch nahi mila. Usey matlab nahi kaun jeete- kaun haare, Usey to pata hai to bas itna kay pet ki bhook mitaane k liye vote nahi, pesa dena padta hai.

Aakhir aisa kya hai is satta ki kursi me, k jo bhi ispe beth jata hai apne dino ko bhool jata hai, aur bhool jata hai apne kiye un vaado ko, jinke poora hone ki umeed k aasre log apna vote inhe dete hain. Kya us bujurg mahila ki galti thi usney umeed ki kay pichli sarkaar na sahi, par shayad ye sarkar to mere liye kuch karegi, Aur isi umeed-umeed me uska poora jivan beet gaya. Par sada rahi to ye umeed, jo ab budhape me jawaab dene lagi hai. Bas abto jese tese karke vo apna pet paal rhi hai.

Sawaal aaj bhi vahi ka vahi hai.
Kya vakai sarkar aam janta ki hai?
Kya vakai sarkar gareebo ki bhi utni hai jitni ameero ki ?

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

3-Phase Developing India

इंडिया ....
नाम  सुनते  ही एक ऐसे  देश  की  छवि  सामने उभरती  है।
जहां  तरह -तरह  के वनस्पति , जीव -जंतु और कई धर्मो के
लोग एक साथ रहते हैं।
जहाँ हरे भरे खेत खलिहान हैं, जहाँ लोगो  में आज  भी
प्रेम-भाव, आदर-सम्मान है।
जहां आपको प्रकर्ति के दिए हर मोसम का
नज़ारा देखने को मिल जाएगा।

आजादी के बाद से निरंतर विकास इस देश की
पहचान बन गया है।
विश्व की तीसरी सबसे बड़ी फोज इसी देश की है,
डॉक्टर्स-इंजिनियर  की संख्या में बस दो मुल्क पीछे ही रह गया है।
चाँद तक तो हम बहुत पहले ही पहुँच चुके हैं।
अब कोशिश जारी है मार्स तक पहुँचने की।

यहाँ की मिट्टी  ने भगत सिंह, आज़ाद, एस.सी.बोस, जैसे वीरसपुतों को जन्मा है।
वहीं जवाहर लाल नेहरु, लाल बहादुर शाश्त्री, इंद्रा गाँधी जैसे नेताओं को भी जन्म दिया।

अपने कर्म और निष्ठा के कारण पूरे विश्व में अपनी ख्याति
रखने वाले महात्मा गाँधी भी इसी मिटटी की उपज हैं।

वहीँ दूसरी ओर टाटा, बिरला, अम्बानी, भारती जैसे लोगो ने भारत को विश्व इस्तर पे एक नयी पहचान दी है।

         ये तो बात रही हमारी आजादी के बाद के एक फेज की ( 1st phase of developing india ).      


अब बात आती है दूसरे फेज की ( 2nd phase of developing india ).

हमे आज़ाद हुए तक़रीबन 68 साल हो गए हैं। पर सवाल ये उठता है।

क्या हम वाकई आज़ाद हुए हैं ?
क्या हकीकत में हमे हमारा हक मिला है ?
क्या 1947  का गरीब और विकास में पिछड़ा भारत
अपने विकास की गति को ठीक गति से चला पाया ?
क्या यहाँ काले-गोरे, अमीर-गरीब में कोई फर्क नहीं ?
क्या हम लोग वाकई में अपने पुरखो से मिली संस्कृति के
साथ इन्साफ कर पाए हैं ?

तो खुद से पूछिये.... जवाब मिल जाएगा।

कहने को तो ये देश 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो चूका था,
पर हकीकत यही है के हम आज भी गुलाम हैं,
बस फर्क इतना है के जब हम गोरो के गुलाम थे,
और अब हम अपनों क गुलाम है।

बात ये नहीं है के हमारे ऊपर राज कौन कर रहा है, बात ये है के हमे आदत हो चुकी है गुलाम रहने की।

कहने को तो हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में रहते हैं,
पर बस कहने को और पढने को,
आज यहाँ बस एक ही राज रह गया है, राजनैतिक राज।
जिसमे से नैतिकता ख़त्म होके बस राज बचा है, जो ये लोग
इस देश की आवाम पर कर रहे हैं।
बिलकुल बड़े बुजुर्गो की कहावत की तरह "जिसकी लाठी उसकी भेंस ", तो समझ तो आ ही गया होगा के किसकी लाठी है और कौन भेंस है।

पर गोर करने वाली बात ये है,
क्या ये लोकतंत्र राज है?
क्या हम आज़ाद इसीलिए हुए थे ?
क्या इस मिटटी के वीर सपूतों ने अपना बलिदान इसीलिए दिया था के कुछ सियासत गर्द इस देश को अपनी मुट्ठी में रखे और जैसे चाहें वैसा इसे चलायें।

तो साफ़-साफ़ सीधे अक्षरों में कहना चाहूँगा,
वो तो ऐसा भारत चाहते थे जो कभी इंडिया न बने।
क्यूंकि वो भली भाति जानते थे की इंडिया कभी आज़ाद
नहीं हो पाएगा, इंडिया तो अंग्रेजो की देन है।
इसीलिए वो आज़ाद भारत चाहते थे, ना की गुलाम इंडिया

आधा काम वो कर चुके, हमे गोरो से आज़ाद करा कर।

पर बाकी का काम हम सबको करना होगा, इन भ्रष्ट नेताओं,
अपने आपको जनप्रतिनिधि कहने वाले चोरो से खुद को और
इस देश की आवाम को असली आजादी दिला कर।
अमीर और गरीब के बीच जो फर्क गहराता जा रहा है उसे पाट कर। 
गाँवो को शहरो से जोड़कर। 

हिन्दू-मुस्लीम-सिख-इसाई आपस में हैं भाई-भाई,
बचपन में किताबो में पढ़ा था, पर इसे हकीकत का
अमली जामा पहना कर हम इसी इंडिया को
उस भारत के समक्ष लाके खड़ा कर देंगे, जिसके निर्माण की
कल्पना हमारे पूर्वजों, हमारे शहीदों,और हमारे स्वतंत्रता सेनानियों
ने की थी।

जिन्होंने अपने लहू को पानी की तरह बहा दिया,
ताकि हमारा आज आज़ाद हो,
हम किसी के फिरसे गुलाम न बने।

  
और इसी बदलाव के साथ शुरआत होगी
इंडिया के 3rd developing phase ki 
( तीसरे विकास की )।

जो की बहुत बेहतर होगा इस समय के इंडिया से।